Thursday, December 8, 2016

बिखरते परिवार बिखरती जिंदगियां..............

                  भारत को आज विश्व समुदाय में कई खासियत की वजह से जाना जाता है। उसमें भारतीय समाज की स्थिरता में सशक्त परिवार संस्था के योगदान की भूमिका महत्वपूर्ण है। परिवार संस्था में भी संयुक्त परिवार के महत्व को कभी भी नहीं नकारा जा सकता। दुर्भाग्य की बात यह है कि आधुनिकीकरण के दौर में संयुक्त परिवार में बिखराव का दौर चरम पर पहुंच रहा है। इससे कई बार परिवार के युवाओं को खासी तकलीफ होती है तो कभी परिवार के मुखिया ऐसी स्थितियों से खुद को टूटता हुआ महसूस करते हैं। फिलहाल नई पीढ़ी को परिवार के बिखराव का सबसे ज्यादा खामियाजा भुगतना पड़ रहा है। एक-दूसरे की भावनाओं को न समझना, त्याग की भावना का खत्म होना, परिवार में महिलाओं के आपसी झगड़े, संपत्ति को लेकर आपसी मनमुटाव जैसे कई कारण है, जो संयुक्त परिवार के विघटन की मजबूत नींव तैयार करते हैं। जिसका हश्र कई जिंदगियों के बिखरने के साथ होता है।
                          भारतीय समाज में संयुक्त परिवार का आधार एक मुखिया में सबका विश्वास होना था। घर का सबसे बड़ा सदस्य परिवार का मुखिया होता था। मुखिया अपने अधिकार और जिम्मेदारियों का बखूबी निर्वाह भी करता था। उसे यह पता रहता था कि परिवार के हर सदस्य की क्या जरूरत है, किसी की भावनाएं तो आहत नहीं हो रही हैं, कोई कमियों से जूझने को मजबूर तो नहीं है...इसके लिए भले ही उसे खुद ही वंचित रहना पड़े लेकिन परिवार के सभी सदस्य खुशी से रह सकें, इस जिम्मेदारी का निर्वहन मुखिया भलीभांति करता था। पंडित दीनदयाल के अंत्योदय यानि कि सबसे कमजोर के उत्थान की तर्ज पर ही परिवार में भी मुखिया इस बात का खास ख्याल रखता था कि घर का छोटा सदस्य आगे बढ़ सके इसके लिए उसे बड़े सदस्यों की तुलना में ज्यादा महत्व देने में भी वह संकोच नहीं करता था। पर लोकतंत्र के इस दौर में एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ ने इन संबंधों को तार-तार कर दिया है। संयुक्त परिवार बिखर चुके हैं तो एकल परिवार के सदस्य तनाव के दौर से गुजरने को मजबूर हैं।
                       सनातन हिंदू समाज में संयुक्त परिवार की एक झलक रामचरित मानस में अयोध्या के राजा दशरथ के परिवार से देखी जा सकती है। जब उनके बड़े पुत्र राम के वन जाने का फैसला हुआ तो उन चारों भाईयों के बीच जो प्रेम का अटूट बंधन देखने को मिला, परिवार की उस संयुक्त व्यवस्था और इससे परिवार के हर सदस्य में पल्लवित एक-दूसरे के प्रति प्रेम की थाती को महसूस किया जा सकता है। राम के साथ लक्ष्मण ने भी महलों के सुख साधनों को त्यागकर भाई के साथ वन जाने का फैसला किया। वहीं जब भरत ने राजतिलक करवाने से भी इंकार कर दिया। जब राम ने जंगल से वापस लौटने से इंकार कर दिया तो राम की खडाऊं को सिंहासन पर रखकर बड़े भाई के सेवक के बतौर भरत ने चौदह साल तक कर्तव्यों का निर्वहन किया। यानि कि त्याग का कहीं कोई अंत देखने को नहीं मिलता।
                     त्याग करने में सबसे पहला नाम बड़े भाई राम का ही दर्ज हुआ और इसी वजह से संयुक्त परिवारों का महत्व आज तक बना हुआ है। पर ‘त्याग’, ‘प्रेम’ और ‘एक-दूसरे के प्रति समर्पण की भावना’ के खत्म होने से संयुक्त परिवार की व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई है। इसकी वजह से समाज में ईर्ष्या, द्वेष, छल, कपट, धोखेबाजी का बोलबाला हो गया है और पूरा समाज खामियाजा भुगतने को मजबूर है।
                    भौतिक साधनों में खुशी ढूढ़ने की कोशिश भी अब खोखली साबित हो चुकी है। ऐेसी स्थिति में जरूरत है कि एक बार फिर भारत की मजबूत संयुक्त परिवार संस्था को पुनर्जीवित किया जाए। घर के बड़े सदस्य संकुचित भावनाओं को छोड़ने में समर्थ हों। परिवार में एक-दूसरे की भावनाओं की कद्र हो और राम की तरह मुखिया के अंदर त्याग, न्याय और समर्पण के भावों की झलक परिवार के अन्य सदस्यों के जीवन में खुशियों को लौटा सके। उम्मीद से आसमान है और इतिहास अपने आप को दोहराता है। इसके चलते एक बार फिर संयुक्त परिवार के दौर के लौटने की उम्मीद तो की ही जा सकती है कि फिर से राम की तरह विशाल ह्रदय लिए घर के मुखिया का किरदार लौटेगा, भरत और लक्ष्मण तो समाज में अब भी मौजूद हैं। 


Thursday, December 1, 2016

विमुद्रीकरण और सर्कस का खेल

             सर्कस में कलाकारों के कर्तब देखकर हर कोई दांतों तले उंगली दबाने को मजबूर हो जाता है, उनके करतब कभी रोमांचित करते हैं तो कभी पूरे शरीर में सिहरन पैदा कर देते हैं। लेकिन सर्कस का यह खेल अब मंदी की चपेट में आ गया है। मंदी की मार सर्कस के खेल को तबाह कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विमुद्रीकरण के करतब पर भी कुछ सर्कस के खेल की परछाईं पड़ी नजर आ रही है। नोटबंदी का करतब दांतों तले उंगली दबाने वाला ही है। यह कभी दर्शक (भारतीय नागरिकों) को रोमांचित करता है तो किन्हीं के शरीर में सिहरन भी पैदा कर रहा है। सर्कस के विरोधी विचारधारा के लोग इसका अंजाम बाजार की मंदी को बता रहे हैं। साथ ही रिंग मास्टर मोदी पर अविवेकपूर्ण फैसला लेने का आरोप भी मढ़ रहे हैं।
                         इस सर्कस के खेल की स्क्रिप्ट ही कुछ इस तरह लिखी गई थी कि विमुद्रीकरण के खेल में कालेधन रखने वालों का बंटाढार हो जाएगा और आतंकवाद अपनी किस्मत पर रोने को मजबूर होगा। जब पर्दा उठा और 500-1000 के पुराने नोट बंद करने की आनन-फानन में घोषणा की गई तो देश में अफरातफरी का माहौल पैदा हुआ। निश्चित तौर से कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों के शरीर में ऐसी सिहरन पैदा हुई कि उनका मानसिक संतुलन अभी तक ठिकाने पर नहीं आ पा रहा है। कभी वह स्क्रिप्ट राइटर मोदी को गाली देने पर उतारू हो जाते हैं तो कभी उसे सर्कस का खेल खेलना भुला देने की चेतावनी देने से भी नहीं चूकते। दर्शकों की ऐसी प्रतिक्रिया का असर ही है कि स्क्रिप्ट राइटर को भी कई बार अपनी स्क्रिप्ट में सुधार करने की गुंजाइश नजर आने लगती है। कभी तीन दिन बाद ही नोटबंदी को पूरी तरह से अमल में लाने की बात कही जाती है तो कभी स्क्रिप्ट में थोड़ा सुधार कर इसकी मियाद बढ़ाने का ऐलान किया जाता है। 
                      सर्कस के इस खेल में अलग-अलग कलाकार अपनी भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। कांग्रेस के युवराज कभी नोट बदलवाने के लिए लाइन में लगकर दर्शकों को गुदगुदाते हैं। नोटबंदी को वे अपनों को फायदा पहुंचाने की सोची-समझी साजिश करार देते हैं। आम आदमी पार्टी इसे अन्य दलों के खिलाफ षड्यंत्र बताने की भरसक कोशिश करते हैं। उधर उत्तर प्रदेश से आवाज आती है कि कुछ दिन के लिए तो नोट चलाने का मौका मिलना ही चाहिए। तो पश्चिम बंगाल खेमे से ममता की आंखों से मोदी के प्रति अंगारे टपकते हैं कि मैं तुझे सत्ता से बाहर करके रहूंगी। इस बीच स्क्रिप्ट राइटर मोदी खुद के बचाव में ऐेलान करते हैं कि भाजपा रिंग के सभी विधायकों-सांसदों को 8 नवंबर से दिसंबर तक का एकाउंट डिटेल जमा करना होगा। इस बीच बैंकों पर आरोप की झड़ी लगने लगती है कि वे चीन-चीन कर रेवड़ी बांट रहे हैं। यानि कि  नियमों को ठेंगा दिखाते हुए अपनों को फायदा पहुंचा रहे हैं। कई जगह लाखों के नए नोट एक जगह मिलने पर बैंकों की गड़बड़ी साफ नजर भी आती है। अब इसके लिए सरकार को भले ही कटघरे में खड़ा न किया जा सके लेकिन बैंकों को बख्शा भी नहीं जा सकता।
                      ठीक इसी तरह सर्कस के खेल में कभी सरकार और रिजर्व बैंक में माथापच्ची शुरू हो जाती है। कभी नए नोट स्याही छोड़ने लगते हैं तो रिजर्व बैंक पर उंगली उठती है। रिजर्व बैंक भी पीछे नहीं, वह सफाई दे देता है कि पुराने नोटों से भी स्याही निकलती है। बाद में अपनी गलती का अहसास भी करता है। रिंग मास्टर अपनी स्क्रिप्ट के जरिए सर्कस के सभी जानवरों (राजनीतिक दलों) को खूब छकाता है, खूब उछल-कूद कराता है और कभी आंसू बहाकर अपनी बेबसी का इजहार करने से भी नहीं चूकता। समय मांगता है कि मुझे कुछ समय मिलेगा तो दर्शकों को उसका खेल खूब रास आएगा। फिलहाल सर्कस के इंटरवल तक के खेल में मिश्रित प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। फिर भी दर्शकों के चेहरे पर आतंकवाद से राहत मिलने का आंशिक सुकून है। शायद यही वजह है कि नोटबंदी का असर उपचुनावों पर देखने को नहीं मिला है। इससे रिंग मास्टर उत्साहित भी है। 
                        लेकिन असल परिणाम आना बाकी है कि पचास दिन बाद दर्शकों के चेहरे पर मुस्कान बिखरती है या फिर चेहरे पर मायूसी छाती है। शो के खत्म होने पर तालियों की गड़गड़ाहट होती है या फिर बोर होकर दर्शक मुंह बनाते हुए घरों को लौटता है। तो आइए साहब थोड़ा चैन की सांस लेते हैं और कुछ दिन और देखने के बाद ही रिंग मास्टर और स्क्रिप्ट राइटर के काम का आकलन किया जाएगा...।

Wednesday, November 9, 2016

मोदी का क्रांतिकारी कदम


 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 8 नवंबर को अचानक तय हुए राष्ट्रीय संबोधन को लेकर भारतीय नागरिकों में बहुत जिज्ञासाएं थीं। जिज्ञासाएं किसी क्रांतिकारी कदम की आहट तो पा चुकी थीं, लेकिन यह पता नहीं था कि यह क्या होगा? दिनभर के घटनाक्रम में तीनों सेनाओं के अध्यक्षों से मुलाकात और उसके बाद प्रधानमंत्री की राष्ट्रपति से मुलाकात से स्वाभाविक प्रतिक्रिया यही आ रही थी कि सर्जिकल स्ट्राइक के बाद जिस तरह से सीमा पर तनाव चल रहा है, उसको लेकर कोई कड़ा फैसला लिया जा सकता है। यानि कि पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध की घोषणा की जा सकती है। देश में आपातकाल की स्थिति निर्मित हो सकती है। लेकिन मोदी के राष्ट्रीय संबोधन के बाद कयास झूठे पड़ गए। कदम तो क्रांतिकारी उठाया गया लेकिन यह देश के अंदर इकॉनोमिक सर्जरी से जुड़ा हुआ था। आतंकवाद से बड़ी समस्या देश के अंदर फैला भ्रष्टाचार, जमा कालाधन और नकली मुद्रा के चलन को पूरी तरह से खत्म करने की दिशा में एक कड़ा फैसला लिया गया। प्रधानमंत्री ने साफ किया कि यह भी एक तरह की राष्ट्रभक्ति है। राष्ट्रहित में 500 और 1000 रुपए की मुद्रा पर रोक लगा दी गई। 8 नवम्बर की रात से आम आदमी के लिए यह नोट पूरी तरह से चलन से बाहर हो गए, सिवाय उन सेवाओं के जहां सरकार ने महज तीन दिन के लिए इन नोटों के चलन की अनुमति दी है। 

नोटों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले को इतना गोपनीय रखा गया कि किसी को इसकी भनक तक नहीं लग सकी। केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद देश में आमूलचूल परिवर्तन की दिशा में लगातार कदम उठाए जा रहे हैं। मोदी की वसुधैव कुटुंबकम की सोच के साथ देश की दुनिया में अलग छवि बन चुकी है। आतंकवाद के मुद्दे पर चीन को छोड़कर दुनिया के सभी ताकतवर देश भारत का साथ देने को तैयार हैं। आर्थिक विकास की दर में इजाफा हुआ है। कालाधन और भ्रष्टाचार को लेकर आम आदमी की साफ सोच बनने लगी है। मोदी सरकार ने नोटों पर प्रतिबंध लगाने से पहले लोगों को कालाधन समर्पित करने के लिए योजना चलाई थी। इसका फायदा भी लाखों लोगों ने उठाया और कालेधन को आयकर के सामने उजागर किया। इसके बाद सरकार ने दूरगामी फैसला लेते हुए 500, 1000 के नोटों पर प्रतिबंध लगाने के फैसले को क्रियान्वित कर साफ कर दिया कि भ्रष्टाचार के जरिए काली कमाई करने वाले लोगों को इससे ज्यादा मोहलत नहीं दी जा सकती। पड़ोसी देश से आ रहे नकली नोटों पर रोक लगाना भी इसका एक मकसद है लेकिन बहुतायत में बड़ी करेंसी का दुरुपयोग देश के नागरिकों द्वारा ही किया जा रहा था, जिस पर रोक लगाने के लिए इस तरह का कड़ा फैसला लेना शायद जरूरी हो गया था। 

इस ऐतिहासिक फैसले के साथ संयोग ही रहा कि अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए हो रहे चुनाव में रिपब्लिकन उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप की ऐतिहासिक जीत हुई है। डोनाल्ड ट्रंप का राष्ट्रपति बनना, डेमोक्रेटिक उम्मीदवार हिलेरी क्लिंटन की तुलना में भारत के लिए ज्यादा हितकर हो सकता है, ठीक उसी तरह देश में प्रधानमंत्री मोदी का आर्थिक क्रांति का यह फैसला देश के युवाओं के स्वर्णिम भविष्य में सहयोगी साबित होगा। इस बदलाव का मुख्य उद्देश्य यही है कि लोग भ्रष्टाचार और काली कमाई से तौबा करें। नए नोटों के जरिए भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसना तय माना जा रहा है। भ्रष्टाचार के कारण युवाओं को जीवन के अलग-अलग मुकामों पर हताशा का सामना करना पड़ता है। ऐसी स्थितियां खत्म होंगी और युवाओं की सोच पूरी तरह से ईमानदारी की राह पर चलकर देश को आगे ले जाने की बन सकेगी। काली कमाई की इच्छा खत्म होगी तो अर्थव्यवस्था ज्यादा पारदर्शी होगी और राष्ट्रहित में धन का बेहतर उपयोग हो सकेगा। इससे रोजगार के ज्यादा साधन मुहैया कराए जा सकेंगे। कालाधन पर बंदिश लगेगी तो चुनावों में हो रहे कालेधन के उपयोग पर प्रतिबंध लग सकेगा। इससे वोटों की खरीद-फरोख्त की वजह से युवाओं के मन-मस्तिष्क में बन रही देश की गलत छवि की गुंजाइश खत्म हो सकेगी। नकली मुद्रा के चलन से बाहर होने पर आतंकवादियों और अराजक तत्वों पर शिकंजा कसा जा सकेगा। निश्चित तौर से मोदी का यह क्रांतिकारी फैसला देश में ईमानदारी, पारदर्शिता और तरक्की की नई फसल बोएगा। देश प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पहले पांच साल के कार्यकाल में ही उस मुकाम पर पहुंच सकेगा, जिसमें राष्ट्रहित और मानवीय मूल्यों की साफ सोच भारत के हर नागरिक के मन-मस्तिष्क में अंकित हो सकेगी। ‘सत्यमेव जयते’ की मंजिल पर पहुंचने का प्रयास कर हर नागरिक खुद को गौरवान्वित महसूस कर सकेगा।

Thursday, November 3, 2016

आज के युवाओं के सामने चुनौतियां...

यु वा और चुनौतियां एक दूसरे के पर्याय हैं। पर लग रहा है कि आज का युवा भविष्य की चुनौतियों से भाग रहा है। महानगरों में हालात ज्यादा खराब हैं। परिवारों के बिखराव और सिमटते परिवारों, बदलते सामाजिक सरोकारों, आसपास के परिवेश में आए बदलाव, आधुनिक जीवन शैली और संचार के बढ़ते साधनों ने बचपने को खत्म किया है तो युवाओं को भटकाया   भी है।

बच्चा छोटा होता है और जब बढ़ता है तो उसकी हरेक हरकत पर हम खुश होते हैं। घर के आंगन में उसकी लोटपोट और हर शैतानी को मां पिता ही नहीं पूरा परिवार सहजभाव से लेता है। लेकिन बचपने को सहजभाव से लेने के लिए जब परिवार ही तैयार नहीं है यही बच्चा बड़े होने की प्रक्रिया में कुछ ऐसी बातें करने लगता है तो नागवार होती हैं। बच्चों को बचपन से संस्कार सिखाने की परम्परा हमारे देश में रही है। संयुक्त परिवारों के बीच रहने से यह बेहद आसान होता है। घर के बड़े बुजुर्ग, बच्चों में ऐसी आदतों के बीज बो देते हैं जो ताउम्र उनके काम आती है। बच्चे के मस्तिष्क में बालकाल में जिस तरह के संस्कारों की छाप पड़ जाती है वह उसके भविष्य की धरोहर तो होती हैं बल्कि कई मौकों पर उसे सम्मान भी दिलाती हैं। 

वक्त के साथ बहुत कुछ बदलता चला गया और फिर बदलाव की यह गति तेज हो गई, बहुत कुछ इतना पीछे छूट गया कि उसे पाना असंभव हो गया। न अब बच्चों को दादा-दादी कहानियां सुनाकर सुलाते हैं ओर न ही मां को लोरियां आती हैं। यहां तक कि बच्चे के लालन पालन के लिए भी मां-बाप गूगल पर निर्भर हो गए हैं। हर समस्या का समाधान वह गूगल पर सर्च कर रहे हैं। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि बच्चे की नैसर्गिक क्रियाओं को भी बाधित करने की कोशिश की जा रही है। मां-बाप के झगड़ों ने सिंगल पैरेंटिंग सिस्टम का नया जमाना ला दिया है। बच्चा बस किसी एक के पास पल रहा है। या बहुत छोटे या कहें माइक्रो फैमिली में पल रहा है तो अकेलेपन का अहसास बचपन से लेकर उसकी जवानी तक, उसे ड्रग्स सहित बुरी आदतों और संगत की तरफ आकर्षित कर रहा है। 

 एक समय था जब सिर पर सीधा हाथ रखकर उल्टी दिशा का कान जब तक पकड़ में न आए बच्चे को स्कूल में दाखिला नहीं दिलाया जाता था, लेकिन आज जन्म के साल भर बाद ही झूलाघर में एडमिट करा दिया जाता है। महज तीन साल की उम्र में तो बच्चा बस्ता लेकर स्कूल जाने लगता है और तो और कक्षा पांच और अधिक से अधिक आठवीं तक पहुंचते पहुंचते तो उसे मोबाइल, कंम्यूटर सब हासिल हो रहा है। मां, बाप, शिक्षक और पास पड़ोस की बजाय यही अब उसके साथी हैं। जाहिर है, बचपन, किशोर अवस्था तक आते आते समय से पहले वयस्क हो रहा है। तर्क यह है कि जरूरतों को पूरा करने के लिए महंगाई के दौर में पति-पत्नी का काम करना जरूरी हो गया है। माता पिता की सोच यह है कि वह अपने बच्चे के लिए कुर्बानी दे रहे हैं लेकिन कर वह ठीक इसके विपरीत रहे हैं। उनका बच्चा जिस उम्र में है, उस उम्र में उसे संस्कार, परम्परा और अच्छी शिक्षा की जरूरत है। शिक्षा किताबी नहीं बल्कि वह जो उसे जीवनभर याद रहे। पर इसके लिए वक्त नहीं। अपनी सुविधाओं के लिए परिवार जो कभी संयुक्त थे, वह विखंडित होकर एकल में बदल गए। यानि कि बच्चे को पुरानी पीढ़ी से कोसों दूर करने की घातक कोशिश में हम सफल हो गए। हमने अपना भविष्य जिस बच्चे में देखा वह धीरे धीरे न जाने कब आपसे से ही विलग हो गया। वह इतना दूर चला गया कि उसने अपनी दूसरी दुनिया आबाद कर ली। दिन भर या तो टीवी या फिर मोबाइल या कंप्यूटर। घर में रहकर भी वह बेगाना हो गया। अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए कभी दोस्तों का सहारा खोजा और नहीं तो नशे की ओर मुड़ गया। घर में रहकर भी उससे बात करना मुश्किल हो गया। अब इसका दोष उसके माथे तो मढ़ा नहीं जा सकता क्योंकि इसकी बुनियाद तो हम ही डाल रहे हैं। इसलिए बेहद जरूरी यह है कि हम भले ही कितने विकसित क्यों न हो जाएं बच्चों के लालन पालन में नैसर्गिक व्यवस्थाओं का पालन करें। अन्यथा जिस सुख की कल्पना कर रहे हैं वह कभी हासिल नहीं होगा। युवावस्था में भी आज के दौर में युवाओं के अच्छे मित्र उनके माता, पिता और शिक्षक ही हो सकते हैं। और कोई नहीं।

Thursday, October 27, 2016

कर्तव्यों की कसौटी पर आदर्श मोदी, पं. उपाध्याय और संघ

                                             
                                             प्रख्यात साहित्यकार मुंशी प्रेमचन्द्र ने कहा था कि कर्तव्य ही एक ऐेसा आदर्श है, जो कभी धोखा नहीं दे सकता। मुंशी प्रेमचन्द्र के इस कथन में यह बात बहुत महत्वपूर्ण है कि जिसने अपने कर्तव्य का ईमानदारी से निर्वहन कर लिया, वह भी आदर्श हो गया। वहीं जिसको लोगों ने आदर्श माना, वह कर्तव्यों की कसौटी पर सौ फीसदी खरा उतरा। इसमें वैसे तो हमारे देश भारत के आदिकाल से अब तक के हजारों नाम हैं, जिन पर यह वाक्य पूरी तरह से चरितार्थ होता है। आधुनिक काल में भी महापुरुषों की लंबी फेहरिस्त में महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद सहित महापुरुषों, क्रांतिकारियों और देशभक्तों ने कर्तव्य की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर लोगों के दिलों में अपनी विशेष जगह बनाई है। निश्चित तौर से ऐेसे समय पर देश के गौरव, भारत रत्न स्वर्गीय डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का नाम कर्तव्य के पथ पर चलकर आदर्श बनने का अनुपम उदाहरण है। ऐेसा व्यक्तित्व जिसने कर्तव्य करते-करते ही अंतिम सांस ली। इस कड़ी में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ ही एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय और देश में राष्ट्रभक्ति, सेवा और समर्पण का पर्याय बन चुके राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम भी महत्वपूर्ण है।

                                        आदर्श स्थापित करने वाला व्यक्ति निश्चित तौर से अपने कर्तव्य का निर्वहन इस तरह से करता है, जिससे समाज और राष्ट्र के प्रति समर्पण और योगदान के प्रतिमान खुद-ब-खुद स्थापित हो जाते हैं।  यह बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व और कृतित्व से साफ हो जाती है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक से लेकर देश के प्रधानमंत्री तक का सफर तय करने के बीच नरेंद्र मोदी ने जिस तरह अपने कर्तव्यों का निर्वहन किया है, वह राष्ट्र के प्रति समर्पण और निष्ठा की अद्भुत मिसाल है। गरीबी के चलते चाय बेचने से लेकर सर्वोच्च पद तक पहुंचने के बीच कभी भी उनका ईमान नहीं डिगा। संघ से लेकर प्रधानमंत्री के पद तक उन्होंने अपने कर्तव्यों का निर्वहन इस तरह किया कि इसमें परिश्रम की पराकाष्ठा के साथ ईमानदारी और देशभक्ति के जज्बे को सेल्यूट किया जा सकता है। शायद यही वजह है कि आज के युवा का आदर्श नरेंद्र मोदी बन गए हैं। चाहे देश हो या विदेश, वसुधैव कुटुंबकम् की अवधारणा को चरितार्थ करते हुए प्रधानमंत्री मोदी सभी मंचों से लोक कल्याण का दिशा में वह हर प्रयास करते हैं जिससे सभी की भलाई हो। यही वजह है कि वे आज भारत की जगह पूरे विश्व में अपनी विशेष पहचान रखने वाले नेता बन गए हैं। 

                                     दूसरा उदाहरण एकात्म मानव दर्शन के प्रणेता पंडित दीनदयाल उपाध्याय का है। एकात्म मानववाद मानव जीवन व सम्पूर्ण सृष्टि के एकमात्र सम्बन्ध का दर्शन है। इसका वैज्ञानिक विवेचन पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने ही किया था। यह दर्शन पंडित दीनदयाल उपाध्याय द्वारा 22 से 25 अप्रैल 1965 को मुम्बई में दिये गये चार व्याख्यानों के रूप में प्रस्तुत किया गया था। एकात्म मानव दर्शन के केंद्र में व्यक्ति,व्यक्ति से जुड़ा हुआ एक घेरा परिवार, परिवार से जुड़ा हुआ एक घेरा समाज, जाति, फिर राष्ट्र, विश्व और फिर अनंत ब्रम्हांड को अपने में समाविष्ट किये है। इस अखण्डमण्डलाकार आकृति में एक व्यक्ति से दूसरे, फिर दूसरे से तीसरे का विकास होता जाता है। सभी एक-दूसरे से जुड़कर अपना अस्तित्व साधते हुए एक दूसरे के पूरक एवं स्वाभाविक सहयोगी बन जाते हैं और इनमे कोई संघर्ष नहीं रहता। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने न केवल एकात्म मानववाद पर बल दिया, बल्कि अपनी जीवनशैली के जरिए जीवंत संदेश देने में सफल रहे। यही वजह है कि आज देश के अलग-अलग राज्यों में भाजपा की सरकारें दीनदयाल उपाध्याय को प्रेरणास्रोत मानते हुए एकात्म मानववाद और अंत्योदय के मंत्र पर अमल कर जनकल्याण में जुटी हैं।

                                          जब बात मोदी और पंडित दीनदयाल की हो तो उस संगठन को नहीं बिसराया जा सकता, जिसकी वजह से इनका व्यक्तित्व साकार हो सका यानि कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। संघ और आरएसएस के नाम से प्रसिद्ध इस संगठन की स्थापना 27 सितंबर 1925 को डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने की थी। बीबीसी के अनुसार संघ विश्व का सबसे बड़ा स्वयंसेवी संस्थान है। महात्मा गांधी ने 1934 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शिविर की यात्रा के दौरान वहां पूर्ण अनुशासन देखा और छुआछूत की अनुपस्थिति पायी। उन्होंने व्यक्तिगत रूप से पूछताछ की और जाना कि वहाँ लोग एक साथ रह रहे हैं तथा एक साथ भोजन कर रहे हैं। सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन् 1963 के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया। सिर्फ दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहाँ उपस्थित हो गये। आदिकाल से अब तक हिन्दू धर्म के मुताबिक जिस भगवा ध्वज को आदर्श माना गया, उस भगवा ध्वज को ही संघ में गुरू मानकर वंदना की जाती है। संघ अपनी स्थापना से लेकर अब तक समर्पण, त्याग और सेवा की मिसाल बन चुका है। 1962 के भारत-चीन युद्ध में इसकी भूमिका को जवाहर लाल नेहरू ने सराहा था, तो किसी भी प्राकृतिक आपदा में संघ अग्रणी भूमिका में अब भी विद्यमान रहता है। 

                                      कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन करने में राष्ट्रीय स्वयंसेवकों की बराबरी शायद ही कोई कर पाए। पंडित दीनदयाल उपाध्याय हों, अटल बिहारी वाजपेयी हों या फिर नरेंद्र मोदी ... सभी ने ध्वज को प्रणाम किया है और इसे आदर्श मानते हुए राष्ट्र की सेवा में कर्तव्यों का ईमानदारी से निर्वहन किया है। संघ कर्तव्य और आदर्श का पर्याय बन चुका है। यह खुद ही एक सिद्ध मंत्र बन चुका है और यही वजह है कि राष्ट्रभक्त युवाओं के लिए संघ से जुड़ना अब गौरव की बात है। 

Thursday, October 20, 2016

बदलती युवा सोच ...........

               विचलन की जगह विकास, नकारात्मकता की जगह सकारात्मकता, कानून का उल्लंघन की जगह पालन करने की आदत, नशा की जगह सात्विकता, व्यभिचार की जगह संयम, लापरवाही की जगह अनुशासन ...युवाओं की डिक्शनरी में इस तरह के शब्द प्रभावी हो जाएं तो शायद युवा, राष्ट्र की असली धरोहर का पर्याय बन सकते हैं। हाल ही में मैंने इस तरह का एक उदाहरण देखा तो मन को सुकून मिला और यह उम्मीद भी जागी कि शायद 21 वीं सदी में स्वामी विवेकानंद के सपने साकार होने से अब कोई नहीं रोक सकता।

               मामला राजधानी भोपाल के मौलाना आजाद नेशनल इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी का है। रविवार को मुझे यहां के कुछ युवाओं से रूबरू होने का अवसर मिला। युवाओं से मिलने की मुझे तीव्र उत्कंठा और जिज्ञासा रहती है, क्योंकि युवाओं में रूपांतरित होते राष्ट्र की झलक साफ दिखाई देती है। मेनिट के युवा छात्रों ने बताया कि यहां मुफ्तखोरी में नशा बांटा जाता है। सीनियर छात्र सुनियोजित रणनीति के तहत जूनियर छात्रों का नशे की लत में धकेल देते हैं। शुरुआत में इसकी लत कंसन्ट्रेशन, अच्छा परफोर्मेंस और बेहतर कैरियर के लिए ज्यादा मेहनत के नाम पर डलवाई जाती है लेकिन अंतत: छात्रों के कैरियर पर ही बन आती है। पांच साल पहले यहां 60-70 छात्रों का एक ग्रुप ऐसा बना, जिसने किसी तरह का नशा करने का संकल्प लिया। पांच साल में इस ग्रुप में छात्रों की संख्या लगभग चार सौ हो चुकी है। यानि कि इन चार सौ छात्रों को स्वहित में बेहतर सोचते हुए राष्ट्रहित के लिए बेहतर काम करने से अब कोई नहीं रोक सकता। मुमकिन है कि एक दिन भारत का हर युवा इस दिशा में सोचकर केवल अपनी सकारात्मक ऊर्जा में बढ़ोतरी करेगा बल्कि राष्ट्र को सकारात्मकता के चरम पर पहुंचाकर विश्व का सिरमौर बनाएगा।

               इस समय देश में विभिन्न विचारधाराओं का व्यापक जोर है। हर विचारधारा युवाओं के जरिए पल्लवित, पोषित और प्रभावी होने का दम भरती है। इन विचारधाराओं में भी एक राष्ट्रवादी और दूसरी मुफ्तवादी विचारधारा को लेकर आजकल काफी चर्चा हो रही है। सामान्यत: देखा जाता है कि राष्ट्रवादी युवा पर पिछड़ी मानसिकता का ठप्पा लगाने की कोशिश की जाती है, जबकि मुफ्तवाद के प्रति युवाओं की मुग्धता बढ़ती जा रही है। देश में बढ़ता नव कल्चर, जिसमें नशा, अपराध सामान्य है। लेकिन युवाओं का एक वर्ग ऐेसा भी है, जो यह सोचता है कि देश में भी अपार संभावनाएं हैं, जिसके लिए युवाओं को एकता, अखंडता और राष्ट्रहित में सोचते हुए आगे बढ़ना होगा। इसके लिए समाज को भी बदलना होगा, क्योंकि राष्ट्रहित के लिए कई ऐेसे काम भी है जिसके लिए समाज तत्पर नहीं है। या फिर यूं कहें कि कुछ तथाकथित मुफ्तवादी समाज को राष्ट्रहित की दिशा में तत्पर नहीं होने देना चाहते।

                स्वामी विवेकानंद जी ने 19 वीं सदी में युवाओं को आह्वान करते हुए कहा था कि "क्या तुम अपने राष्ट्र से प्रेम करते हो? अगर हां तो आओ साथ मिलकर संघर्ष करो। उस परम वैभव को पाने के लिए, और यदि इस संघर्ष पथ पर चले तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखना है, तब भी नहीं जब अपना सबसे प्रिय एवं नजदीकी भी रो रहा हो। सिर्फ आगे बढ़ना निरंतर आगे।" मेनिट के सकारात्मक ऊर्जा से भरे हुए मुट्ठी भर छात्रों ने जिस तरह मुफ्तवादी नकारात्मक विचारधारा से केवल संघर्ष किया, बल्कि विरोधियों से हर मोर्चे पर संघर्ष करते हुए सकारात्मकता का जो नया माहौल परिसर में तैयार किया, वह प्रेरणादायी और अनुसरण योग्य है। 

               निश्चित तौर से यही युवा पूंजी राष्ट्र को नवनिर्माण के मार्ग पर स्थापित करेगी। इनकी तरह ही देश के सभी युवाओं को एक संकल्प लेना चाहिए कि नकारात्मक विचारधारा का केवल विरोध करेंगे, बल्कि मुफ्तवादी पतन के मार्ग पर धकेलने वाली इस विचारधारा के चंगुल से सभी युवाओं को बाहर निकालेंगे। निश्चित तौर से जब युवाओं का विचार बदलेगा तो इस राष्ट्र को बदलने में चंद दिन ही लगेंगे। स्वामी विवेकानंद का परम वैभव का सपना केवल साकार होगा बल्कि हर युवा परम वैभव को प्राप्त करेगा।